भारत के Supreme Court ने एक महत्वपूर्ण फैसले में State of Himachal Pradesh vs. Rajesh Kumar @ Munnu (Criminal Appeal No. 2097/2014) मामले में अभियुक्त की बरी होने को बरकरार रखा। Court ने कहा कि यदि किसी आरोपित बलात्कार पीड़िता द्वारा मेडिकल जांच से इनकार किया जाता है, तो इससे अभियोजन पक्ष के मामले पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 13 अगस्त 2007 की एक घटना से जुड़ा है, जब Police Station Sadar Hamirpur में एक FIR दर्ज की गई। इसमें अभियुक्त Rajesh Kumar @ Munnu पर आरोप लगाया गया कि वह पीड़िता के घर में घुसा और जब वह अकेली थी, तब उसने उसके साथ sexual assault किया। यह शिकायत पीड़िता के पिता ने दर्ज कराई थी, जिन्होंने कहा कि घटना के समय वे और उनकी पत्नी दवा लेने गए थे।
Trial Court ने Rajesh Kumar को IPC की धारा 376 (rape) और 452 (घर में घुसपैठ के बाद हमला, चोट या अवैध रूप से रोकने की तैयारी) के तहत दोषी ठहराया और 10 साल की सजा सुनाई। हालांकि, Himachal Pradesh High Court ने अपील पर सुनवाई करते हुए अभियुक्त को बरी कर दिया, क्योंकि अभियोजन पक्ष के मामले में कई विसंगतियां थीं। इसके खिलाफ State of Himachal Pradesh ने Supreme Court में अपील की।
Supreme Court की प्रमुख टिप्पणियां
Justice Surya Kant और Justice Nongmeikapam Kotiswar Singh की Supreme Court पीठ ने राज्य सरकार की अपील को खारिज कर दिया। Court ने कहा कि इस मामले में साक्ष्यों की भारी कमी थी, FIR दर्ज करने में अनावश्यक देरी हुई, और पीड़िता ने medical examination में सहयोग नहीं किया।
Court ने यह भी कहा कि:
“यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि यदि कोई आरोपित बलात्कार पीड़िता मेडिकल जांच की अनुमति नहीं देती, तो इससे उसके दावों के विरुद्ध नकारात्मक निष्कर्ष निकल सकते हैं।”
Court ने Assessment of the Criminal Justice System in Response to Sexual Offences, In re और Dola v. State of Odisha जैसे मामलों का उल्लेख करते हुए कहा कि बिना किसी ठोस कारण के मेडिकल जांच से इनकार करने से आरोपों की सत्यता पर संदेह उत्पन्न होता है।
इसके अलावा, Supreme Court ने पाया कि पीड़िता के माता-पिता, जिन्होंने शिकायत दर्ज कराई थी, Court में अभियोजन के पक्ष में गवाही देने में विफल रहे। पीड़िता की मां (PW-9) ने स्पष्ट रूप से घटना से इनकार किया, जबकि पिता (PW-8) ने टालमटोल भरे जवाब दिए।
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साक्ष्यों की विसंगतियां और मेडिकल पुष्टि का अभाव
Supreme Court ने Dr. Sunita Galodha (PW-7) द्वारा प्रस्तुत medico-legal report का भी संज्ञान लिया। इस रिपोर्ट में बताया गया कि पीड़िता के शरीर पर कोई बाहरी चोट नहीं थी, जबरदस्ती के कोई निशान नहीं थे, और उसने अपनी निजी जांच कराने से इनकार कर दिया था। इसके अलावा, forensic report में भी semen या अन्य ऐसे साक्ष्य नहीं मिले, जो अभियुक्त को अपराध से जोड़ते।
Court ने टिप्पणी की:
“चूंकि पीड़िता ने शारीरिक जांच, जिसमें hymen की जांच भी शामिल थी, कराने से इनकार किया, इसलिए medical witness यौन संबंध स्थापित होने के बारे में कोई ठोस राय नहीं दे सके। Forensic Science Laboratory की रिपोर्ट भी अभियुक्त को अपराध से नहीं जोड़ती।”
High Court का निर्णय और Supreme Court का रुख
Supreme Court ने कहा कि जब High Court किसी अभियुक्त को बरी करता है, तो तब तक उसमें दखल नहीं दिया जाना चाहिए, जब तक कि वह पूरी तरह गलत साक्ष्यों पर आधारित न हो या बिल्कुल अव्यवहारिक न हो।
Court ने Ramdas v. State of Maharashtra और State of Uttar Pradesh v. Chhotey Lal जैसे मामलों का हवाला देते हुए कहा कि बिना उचित कारण के FIR दर्ज करने में देरी अभियोजन के मामले को कमजोर कर सकती है। इस मामले में, FIR घटना के तीन दिन बाद दर्ज की गई थी और इस देरी का कोई संतोषजनक कारण नहीं दिया गया।
इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, Supreme Court ने High Court के फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और माना कि अभियोजन पक्ष अभियुक्त की दोषसिद्धि के लिए beyond reasonable doubt प्रमाण प्रस्तुत करने में असफल रहा। इसलिए, अपील को खारिज कर दिया गया।